मुझे बड़ी प्यारी एक कथा है, जिसको मैं निरंतर कहता हूं। कृष्ण भोजन को बैठे हैं। एक कौर मुंह में लिया है, दूसरा लेने को हैं कि छोड़ कर उठ खड़े हुए।
रुक्मणी पंखा झलती है। उसने पूछा: कहां जाते हैं? लेकिन उत्तर भी न दिया, भागे द्वार की तरफ। लेकिन फिर देहरी पर ठिठक कर खड़े हो गए। लौट आए उदास।
फिर थाली पर बैठ भोजन करने लगे। रुक्मणी ने कहा: आप अचानक भागे, उससे तो मन में बड़ा प्रश्न उठा था कि क्या हुआ, किसलिए जा रहे हैं, जैसे कहीं आग लग गई हो! उत्तर देने का भी आपके पास समय नहीं था। मैंने पूछा, कहां जाते हैं थाली अधूरी छोड़ कर? उत्तर भी नहीं दिया, उससे तो प्रश्न उठा ही था, अब और प्रश्न उठता है दूसरा कि द्वार पर ठिठक क्यों गए? मैं तो अंधी हूं, मुझे दिखाई नहीं पड़ता, मुझे कुछ कहें। मेरी जिज्ञासा शांत करें। फिर लौट क्यों आए? गए इतनी तेजी से, फिर इतनी उदासी से लौट क्यों आए?
कृष्ण ने कहा: मेरा एक प्यारा एक राजधानी से गुजर रहा है। फकीर है—नंगा फकीर है। अपना एकतारा बजा रहा है। एकतारे के सिवाय उसके पास और कुछ भी नहीं है। उस एकतारे में भी मेरे नाम की धुन के सिवाय और कोई धुन नहीं है। उसके तन—प्राण में मैं ही बसा हूं।
लोग पत्थर मार रहे हैं। लोग खिल्ली उड़ा रहे हैं। लोग उसे पागल समझ रहे हैं। उसके माथे से खून की धार बह रही है और वह एकतारे पर मेरा ही गुणगान किए जाता है। इसलिए आधा कौर गिरा कर दौड़ना पड़ा। दौड़ना ही पड़ेगा, इतना असहाय है!
रुक्मणी ने पूछा: फिर लौट क्यों आए? तो कृष्ण ने कहा: जब तक मैं द्वार पर पहुंचूं, तब तक उसने एकतारा नीचे पटक दिया और पत्थर हाथ में उठा लिए। अब मेरी कोई जरूरत न रही। अब वह खुद ही उत्तर देने में तत्पर हो गया है।
अब मेरा जाना व्यर्थ है। जरा और रुक जाता तो मैं पहुंच गया होता। मगर अब एकतारा गिर गया है। एकतारे में मेरे उठते नाम की धुन गिर गई है। उसके भीतर से मैं विलीन गया हूं जैसे। वह मुझे भूल गया क्षण भर को।
शायद वर्षों से हरि—गीत गाता हो और इन पत्थरों की चोट ने सब भुला दिया। मन खिसक आया नीचे। उत्तर देने को तैयार हो गया। पत्थर हाथ में उठा लिए। प्रतिशोध की अग्नि जल उठी। प्रार्थना खो गई। प्रार्थना राख हो गई। कृष्ण को जाने की जरूरत न रही।
आचार्य रजनीश “ओशो”
गीता दर्शन(भक्ति मार्ग)