बच्चों से जुड़े हुए सभी विषय बहुत गंभीर होते हैं, बहुत मार्मिक होते हैं, कौन सोचता है उनके बारे में, उनकी हालत के विषय में कौन चर्चा करते हैं। किसी विषय के बारे में जब हम विमर्श करते है तो शायद हमारे मन में कुछ तो संवेदना आनी चाहिए, परंतु यहां किस को फुर्सत है किन्ही पराए बच्चों के बारे में सोचने की। मैं बहुत पहले से यही देखता आया हूं कि लोगों को यही सोच होती है कि अपना पेट भर जाए, अपने बच्चों का पेट भर जाए या अपने बच्चों को अच्छा स्कूल मिल जाए, अपने बच्चों की सेहत अच्छी रहे, बस इतनी सी ही तो जिंदगी है, आम और इस देश के खास लोगो की। कौन कब विमर्श करते है दूसरो के बच्चों के बारे में, कौन चिंता करता है किसी दूसरों के बच्चों की पढ़ाई की, किसी दूसरों के बच्चों के संस्कारों की, किन्ही दूसरों के बच्चों के भविष्य की, हमे तो केवल अपने बच्चों ही नजर आते हैं। हमारे समाज में कितने लोग ऐसे है जो किसी झुगी झोपड़ी या किसी अकेले तंबू में रहते है, उन बच्चों को कौन भारत के बच्चे समझते हैं, यहां तो देश को चलाने वाले राजनीतिक लोग भी अपने बच्चों से उपर नही सोच पाते है, कोई बड़े बड़े अधिकारी भी ऐसे बच्चों को अपने देश के बच्चे नही समझते हैं। यहां तो जो लोग विधायिका तथा ब्यूरोक्रेसी में बैठे हैं , उनके पास भी ऐसे बच्चों के भविष्य की चिंता नही है, बाकी आम लोगो को तो छोड़ ही दीजिए। मैं यहां देश के नीतिनिर्धारको से केवल चार प्रश्न पूछना चाहता हूं कि ;
- क्या ये बच्चे जो झुगी झोपड़ी में रहते है, ये भारत के बच्चे नही है जी ?
- क्या इन बच्चों के भविष्य के लिए हमारे पास कोई योजना है है या नही ?
- क्या इन बच्चों को भारत के विकास में योगदान करने का कोई अधिकार है या नही ?
- क्या इन सभी बच्चों के लिए भी भारत में मौजूद बाल अधिकारों पर कोई हक है या नही ?
भारत में कोई ऐसा मातापिता है जो अपने बच्चों के अलावा भी इन बच्चों की ऊर्जा को देश के विकास की मुख्य धारा में जोड़ना चाहता हैं। यहां तो लोग केवल अपने बच्चों के लिए ही धन जोड़ते जोड़ते ही इस दुनिया से विदा हो जाते हैं। कोई भी व्यक्ति जो बिना शादी के तथा बिना बच्चों के भी है वो भी इन बच्चों की ऊर्जा को का लाभ लेने के लिए कोई विजन लेकर नही आते हैं। मैं तो बहुत वर्षो से देख रहा हूं , यहां ना तो झुगी झोपड़ी कम हुई है ना ही झुगी झोपड़ी में रहने वाले बच्चे कम हुए है, ना ही उन्हे उपर उठाने के लिए कोई कारगर योजना आती हैं। यहां तो सभी अपने ही पेट भरने में लगे हुए है। भारत को आजाद हुए 77 साल होने को है, भारत में कितने राजनेता आए और गए, लेकिन कोई इस बड़ी समस्या के बारे में विचार विमर्श नही करते है ,कभी किसी ने इस पहाड़ जैसी मुसीबत के बारे में चिंतन ही नही किया। और आज भी ये समस्या हमारे सामने मुंह उठा कर खड़ी हुई है। हो सकता है कि आप लोग कहे कि ये कौन सी बड़ी समस्या है, जिसे मिटाने की मैं बात कर रहा हूं परंतु प्रिय देशवासियों ये इस व्यवस्था पर चिंतन करना बेहद जरूरी हैं। जो बच्चे भारत की झुगी झोपड़ियों में रहते है, भले ही कोई विचार ना करे, लेकिन ये यहां रहने वाले सभी बच्चों के अधिकारों का हनन है, जिस पर किसी भी नीति निर्धारण करने वालों के दिमाग में नही आते है। मैं यहां आप सभी के सामने दो बाते शेयर करना चाह रहा हूं जो बहुत ही मार्मिक हैं, जैसे ;
पहला : जो परिवार, बच्चों समेत एक ही झुगी में रहते है या एक ही छोटे से टेंट में रहते है, तो वो बच्चें , वो सभी एक्टिविटीज देखते होंगे जो उस झोपडी में या टेंट में चलती होगी। ऐसे बच्चे बेचारे ना चाहते हुए भी अपने मातापिता की हर गतिविधि को देखने को मजबूर होंगे, जो बच्चों से अलग रह कर , अकेले में निभाई जाती है। तो वो सभी गतिविधियां उन मासूम बच्चों के हृदय पर कितना गहरा प्रभाव डालती होगी, शायद इस बारे कोई विचार करने के लिए तैयार नहीं हैं। यहां मातापिता और बच्चे एक ही झोपड़ी में रहते हुए अपने पैरेंट्स द्वारा की जाने वाली सेक्सुअल एक्टिविटीज को भी चोरी छुपे देखते होंगे तथा उनके बीच होने वाली सभी प्रकार के वार्तालाप को भी सुनते होंगे, जो बच्चों के सामने नहीं की जाती हैं।
दूसरा ; वो बच्चे अपने पिता द्वारा जाने अनजाने में पी जाने वाली शराब अथवा कोई भी खाने पीने पर भी ध्यान ध्यान देते होंगे, उसका असर बच्चे के बाल मन पर पड़ता हैं। दूसरा बच्चों के लिए कोई अलग से पढ़ने लिखने के लिए जगह भी नहीं मिलती हैं। जब बच्चे छोटी उम्र में ऐसी गतिविधियां देखते है तो उनके मन में भी उनके प्रति आकर्षण होता है और वो छोटी उम्र में ही जीवन की पटरी से उतर जाते है। बच्चें बेचारे क्या क्या सहन करते है, इसकी बात कोई नहीं करते हैं।
प्रिय भारतीय नागरिकों, ये इश्यू बहुत ही महत्वपूर्ण है जिसके कारण छोटे बच्चों के मन में दो प्रकार की गतिविधियां बहुत असर करती है जिसके कारण से वो अपनी पढ़ाई लिखाई छोड़ कर गलत दिशा में चले जाते है। ऐसा नहीं है कि सौ प्रतिशत बच्चे गलत दिशा में चले जाते है , कुछ बहुत अच्छे भी होते है लेकिन अधिकतर अपने संगत अथवा वहां के माहौल की वजह से गलत रास्ते पकड़ लेते हैं। इन सबसे छुटकारे के लिए झुगी झोपड़ी में रहने वाले सभी बच्चों को आइडेंटिफाई करके उन्हे रखने की अलग व्यवस्था की जानी चाहिए। हमारे यहां समाज में छेड़छाड़ की वारदात तथा अपराधिक गतिविधियां कुछ प्रतिशत तक ऐसे रहन सहन की व्यवस्था के कारण भी होती है, अगर इन बेचारे छोटे बच्चों को संस्कारित करना है तो अपने भारतीय बच्चों के भविष्य के लिए ऐसी व्यवस्था तो करनी पड़ेगी। मैं तीन ऐसी घटनाएं अपनी शोध के अनुसार आप सभी के साथ शेयर कर रहा हूं, जैसे ; - अगर किसी झुगी झोपड़ी में कोई बच्चें पिता , मां को इसलिए पीटे कि वो उसके साथ सेक्स ना करती हो और फिर बच्चे इस कलेश से बचने के लिए मां को ये सब करने के लिए कहें, तो आप इसे क्या कहोगे और बच्चों की मानसिक हालत क्या होगी ? जो रोज ऐसी हरकतों के बीच रहते हैं, तो फिर वो बेचारे बच्चों की क्या हालत होगी और उनको कौन बचाएगा, इन विपरित विकट परिस्थितियों से।
- क्या आप सोच सकते हो कि केवल सात आठ साल के बच्चें जो ऐसे माहौल में पलते है जिन्हे वो सब गतिविधियां सामान्य रूप से अपने ही घर में रोज देखने को मिलती है तो वो बच्चे अकेले में या स्कूल में अकेलापन पा कर एक ही उम्र के लड़का और लड़की सेक्सुअल एक्टिविटी करने की नाकाम कोशिश करते है जब कि वो अभी प्यूबिरिटी एज भी प्राप्त नहीं कर पाए हुए होते हैं। तो आप अंदाजा लगा सकते हो कि जब छोटे छोटे बच्चे मजबूरी में ऐसे माहौल में पलते है तो वो बेचारे क्या करेंगे और वो बच्चें अपनी उम्र से पहले ही मैच्योर होकर, किसी भी प्रकार की नकारात्मकता तथा अपराध की ओर आकर्षित होने लगते। कोई भी मां नही चाहती कि उनके बच्चे गलत दिशा में जाएं।
- जब घर के सभी सदस्य एक ही झुगी या एक ही टेंट या फिर एक ही कमरे में रहने को मजबूर होते है तो उनमें अपनी अकेलेपन की जरूरत पूरी ना होने के कारण चिड़चिड़ापन आता है और ये पुरुष में बेहद अधिक होता है, वो अपनी फिजियोलॉजिकल जरूरत को पूरा करने के लिए सेक्सुअल एक्टिविटी पूरी करने के लिए परेशान रहते हैं। इसलिए ही वो घर में मारपीट तथा नशा करते है, ये आम समस्या है, इसे हर पुरुष जनता है जो पारिवारिक है या बिना परिवार के भी है। सेक्स की पूर्ति के लिए पुरुष किसी भी हद तक गिर सकता है, नशा किए हुए पुरुष से आप क्या अपेक्षा कर सकते हो, जो सेक्स के आगे अपनी पूरी मानसिकता को विकृत कर लेते है। उन सारी कुंठाओं को हमारे छोटे छोटे बच्चे खेलते हैं।
आप समझ सकते है कि बच्चों को और विशेषकर हमारी छोटी छोटी बेटियों को कैसी कैसी परिस्थिओ को झेलते हैं। वास्तव में मुझे ऐसा लगता है जैसे हम अपने भारत के बच्चों की देखभाल करने की बजाय उन्हें अपराधिक गतिविधियों की ट्रेनिंग दे रहे हैं। वो बेचारे बच्चे क्या करें, उन्हे ऐसा माहौल ही नही मिलता है जिसमें वो पढ़ लिख सकें, जहां वो अपनी बालपन की एक्टिविटी कर सके, जहां वो खेल कूद सकें, जहां वो अपने भविष्य के निर्माण के बारे में सोच सकें, उन्हे कौन बताएगा कि उन्हे किधर जाना है और क्या करना हैं। ये हम सबकी ड्यूटी है कि हम सब मिलकर भारत के हर बच्चें की केयर करें तथा उन्हे सक्षम बनाएं।
जय हिंद, वंदे मातरम
लेखक
नरेंद्र यादव
नेशनल वाटर अवॉर्डी
यूथ डेवलपमेंट मेंटर